सोमवार, 17 जून 2013

मीरगंज

जब पूरा शहर रात के आगोश में
समां जाता है...
तब....
शहर के भीतर बसा दूसरा 'शहर'
जगमगाता है......

लेकिन................
रौशनी में टिमटिमाता ये 'शहर'
सिर्फ दूर से ही
खूबसूरत नजर आता है......
पास जाने पर
दहकता है, अंगार बरसाता है....

गलता हुआ, सड़ता हुआ सा
बिद्बिदाता, सड़ांध फैलाता
जिन्दा लाशों का ये 'शहर'
मीरगंज कहलाता है.............

मीरगंज.....
जिसे कभी मीर साहब ने बसाया था
अल्लाह की इबादत के लिए.........

आज भी...
यहाँ होती है इबादत...
बस....
अल्लाह की जगह
नंगे जिस्मों ने ले ली है............

क्योंकि.
ये वेश्याओं, वेश्यालयों और
दलालों का 'शहर' है...............

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को.......

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
--------------------------------------------------------------------अदम गोंडवी

मंगलवार, 4 मार्च 2008

mandi

हर तरफ़ तोल-मोल चल रहा है
बाजार में खड़े हर शख्स मचल रहा है

" नही इत्ते में नही चलेगा ...........
रेट कुछ कम करना पड़ेगा
साब, जैसा माल वैसा रेट है ......
ताजे गोस्त का रेट आज-कल मार्केट में बहुत टेट (टाईट) है
तुम्हारे चक्कर में हो गया मुझे बहुत लेट है .......
माल लेना हो लो वरना.........
मुझसे हो गई बड़ी मिस्टेक है
अच्छा .............इसका क्या रेट है ?
साब, इसके रेट में कुछ रिबेट है
वैसे माल ये भी बहुत टेट है ........
बस दो-चार बार इसका हुआ रेप है "

................ये मंडी है ..................
जिस्म की......जिंदा इंसानी जिस्म की मंडी
यहाँ बिकते हैं जिस्म
ख़रीदे जाते हैं जिस्म
जिस्मों की इस नुमाइश में
हर किसी के लिए है एक जिस्म
भाव चुकाओ और .........
अपने मन का जिस्म ले जाओ
फ़िर इस जिस्म का ............
जितना चाहो उतना लजीज पकवान बनाओ

हे भगवान् ..................................
तूने इंसान ही क्यों बनाया
अपनी सर्वोत्तम कृति को हैवान क्यों बनाया
हैवान इंसान ने ये मंडी बनाई
मंडी में जिंदा जिस्म की बोली लगाई
कितनी माँ-बहनों ने इस मंडी में अपनी इज्जत गंवाई
हे भगवान् तूने ये मंडी क्यों बनाई ............
मंडी में जिंदा इंसानों की बोली क्यों लगवाई?




शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008


Lal Batti

सूरज जैसा हमारा, उनका भी
खून लाल हमारा भी, उनका भी
रूप जैसा हमारा, उनका भी
एक पापी पेट हमारा भी, उनका भी
............. फ़िर क्यों हैं वो दरकिनार ?
दिल में सपने जैसे हमारे, उनके भी
रंग फिजाओं में हमारे भी, उनके भी
रिश्ते मिलावती हमारे भी, उनके भी
खुशियाँ दिखावती हमारी भी, उनकी भी
........ फ़िर क्यों हैं वो सरहद के उस पार ?
........ फ़िर क्यों है उन्हें लाल बत्ती जलने का इंतजार ?

शायद उन्हें पैसे का सुरूर है .....
शायद वो मगरूर हैं .....
या फ़िर शायद ......
वो जिस्म बेचने को.............मजबूर हैं